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सीमा कुमारी
नवभारत डिजिटल टीम: लोक आस्था का महापर्व मानी जाने वाली छठ पूजा (Chhath Puja 2023) 17 नवंबर,शुक्रवार को शुरू हो गई है। छठ का पर्व हर साल कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। छठ का महापर्व सूर्य देव को समर्पित है। चार दिन के इस पर्व की शुरुआत 17 नवंबर, शुक्रवार से हो गई। व्रती सूर्य देव को प्रसन्न कर घर में सुख, शांति-समृद्धि और संतान की लंबी आयु मांगते हैं। सूर्य देव के साथ छठी मैया की भी पूजा की जाती है। कहा तो यहां तक जाता है कि छठ पूजा की शुरुआत सतयुग से हुई थी। आइए जानें छठ पूजा की पौराणिक व्रत कथा के बारे में।
कर्ण ने की थी शुरुआत
मान्यताओं के अनुसार छठ पूजा की शुरुआत महाभारत काल में तब हुई थी जब सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा करनी शुरू की। ऐसा कहा जाता है कि कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वो हर दिन घटों पानी में खड़े होकर उन्हें अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से वो महान योद्धा बने और इसी के चलते आज तक अर्घ्य दान की यही परंपरा चल रही है।
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श्री राम और माता सीता ने भी रखा था व्रत
वैसे तो छठ पूजा क्यों मनाई जाती है, इसको लेकर कई सारी मान्यताएं है। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब राम- सीता 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के उन्होंने ऋषि-मुनियों के कहने पर राज सूर्य यज्ञ किया। पूजा में उन्होंने मुद्गल ऋषि को आमंत्रित किया। मुद्गल ऋषि ने मां सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की पूजा करने का आदेश दिया। मां सीता ने 6 दिन तक लगातार सूर्य देव की उपासना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
द्रौपदी ने भी रखा था छठ का व्रत
मान्यता तो ये भी है जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए थे तो द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा था। इस व्रत की कृपा से उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो गईं और पांडवों को अपना राजपाट वापस मिल गया है। इस वजह से ही छठ पूजा के व्रत को फलदायी माना जाता है।
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मार्कण्डेय पुराण में भी है वर्णन
मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि छठी मैया प्रकृति की अधिष्ठात्री देवी हैं और इसके साथ ही भगवान सूर्य की बहन भी। छठी मैया को संतान सुख, संतान की दीर्घायु और सौभाग्य प्रदान करने वाली माता माना गया है।
जब बच्चे के जन्म के छठे दिन उसका छठी पूजन होता है तब इन्हीं माता का स्मरण किया जाता है। इनकी कृपा से न सिर्फ संतान को हर तरह की सुख सुविधा प्राप्त होती है बल्कि उसके जीवन में आने वाले कष्टों का अपने आप ही निवारण हो जाता है।
प्रियंवद और मालिनी की कहानी
पुराणों के अनुसार, राजा प्रियंवद नामक राजा हुआ करते थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए राजा के यहां यज्ञ का आयोजन किया। महर्षि ने यज्ञ आहुति के लिए बनाई गई गई खीर को प्रियंवद की पत्नी मालिनी को खाने के लिए कहा। खीर के प्रभाव से राजा और रानी को पुत्र तो हुआ किन्तु वह मृत था। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे।