आजकल कश्मीर में केसर का उत्पादन और करोबार इतनी तेजी से बढ़ रहा है। इसकी बढ़ती ही मांग का सबसे महत्वपूर्ण कारण इसकी औषधीय गुण, खाद्य पदार्थों में स्वाद बढ़ाने की क्षमता और ब्यूटी प्रोडक्ट्स में इसका इस्तेमाल। वही कश्मीर के केसर को GI टैग भी दिया गया है जिससे इसकी क्वालिटी और कीमत में और भी ज्यादा इजाफा हुआ है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि केसर की खेती की शरुआत ईरान से हुई थी। वही जलवायु के अनुकूल बनाने के लिए जलवायु और मिट्टी ने केसर की खेती को फलने फूलने में भी मदद की। ऐसे में आइए जान लेते है, कैसे स्थानीय किसानों ने सदियों से केसर की खेती की परंपरा को जीवित रखा।
केसर की कहानी
कश्मीर की खूबसूरत घाटियों में उगने वाला केसर, जिसे स्थानीय भाषा में ‘कोंग’ कहा जाता है, सदियों से दुनिया भर में अपनी खुशबू और स्वाद के लिए मशहूर रहा है। हिंदी में इसे ‘केसर’ और उर्दू में ‘जफरान’ के नाम से जाना जाता है। यह केसर के फूल यानी क्रोकस सैटाइवस के वर्तिकाग्र (नर जनन अंग) से निकाला जाता है, जो आज दुनियाभर में काफी मशहूर हो गया है।
आज ईरान के बाद भारत केसर का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत में केसर का सबसे ज्यादा उत्पादन कश्मीर के पंपोर क्षेत्र में होता है। पंपोर की अनुकूल जलवायु और मिट्टी ने इस की खेती को फलने-फूलने में काफी मदद की है। यहां पैदा होने वाला केसर अपनी हाई क्वालिटी, सुर्ख लाल रंग और तेज खुशबू के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।
कश्मीर में केसर की खेती
आपको बता दे, 11वीं-12वीं शताब्दी में दो विदेशी संन्यासी, हजरत शेख शरीफुद्दीन और ख्वाजा मसूद वली, कश्मीर आए थे। वे कश्मीर की खूबसूरत घाटियों में भटक रहे थे और रास्ते में बीमार पड़ गए। उस समय कश्मीर में एक आदिवासी समुदाय रहता था। बीमार संन्यासियों ने स्थानीय आदिवासियों से काफी ज्यादा मदद मांगी। वही आदिवासियों ने अपनी पारंपरिक औषधियों से संन्यासियों का इलाज किया। इलाज के बदले में संन्यासियों ने आदिवासियों को एक अनमोल उपहार दिया – केसर का फूल। संन्यासियों ने आदिवासियों को बताया कि यह फूल न केवल खूबसूरत है बल्कि कई औषधीय गुणों से भरपूर है। ऐसा माना जाता है कि आदिवासियों ने संन्यासियों से प्राप्त केसर के फूलों को लगाया और धीरे-धीरे कश्मीर में केसर की खेती शुरू हो गई।
